हिन्दू इकोसिस्टम के प्रथम तीन दिवसीय संस्कार प्रशिक्षण लखनऊ में संपन्न हुआ। 3-5 सितम्बर तक होने वाले इस आवासीय संस्कारशाला के प्रशिक्षण कार्यक्रम में देश के अलग-अलग हिस्सों से 24 प्रतिभागियों ने भाग लिया।
वहाँ पर शामिल सभी प्रतिभागियों को एक अलग ही जीवन शैली को अनुभव करने का अवसर मिला। आए हुए सभी प्रतिभागियों से चर्चा करने के लिए अलग-अलग विषयों में गुणी गुरूजनों से भी मिलने एवं उनसे सीखने का अवसर प्राप्त हुआ। जो कि हमारे देश के इतिहास एवं उसकी विशेषताएँ, सनातन धर्म, भारतीय सभ्यता, वैदिक काल, पुराण, उपनिषदों, रामायण, भगवद्गीता, के बारे में जानने का अवसर प्राप्त हुआ। इस समय देश के अधिकांश युवा इन सभी विषयों के ज्ञान से वस्तुतः वंचित रह जाते है। और हमारे देश एवं धर्म के बारे समाज में फैल रही ग़लत धारणा को बहुत जल्दी से चुन लेते हैं या बिना पूरी जानकारी के एक पक्षीय निर्णय ले लेते है। जो समाज में भेदभाव एवं वैमनस्य को बढ़ावा देता है और अपने धर्म के प्रति उसका लगाव भी घटने लगता है। इस समय यदि इस प्रकार की संस्कारशाला का निरंतर आयोजन किया जाए तो ख़ासकर देश के युवाओं को अपने धर्म के प्रति जानने एवं इससे जुड़े रहने में बहुत ही महत्वपूर्ण कदम होगा।
आयोजित संस्कारशाला की रूपरेखा एवं समयबद्ध नियमानुसार किए जाने वाले प्रत्येक कार्यक्रम का आधार वास्तव में किसी गुरूकुल की छवि से कम नही प्रतीत हो रहा था। प्रातः काल में उठने से लेकर रात्रि के विश्राम तक योग, भक्ति, शिक्षा, अध्ययन, भोजन सभी चीजों को बिल्कुल उचित एवं अनुकूल रूप से गुरूकुल पद्धति पर व्यवस्थित किया गया था।
इस संस्कारशाला के संचालक एवं आयोजक एवं गुरूकुल के मार्गदर्शक श्री ज्ञान पाण्डेय जी की शब्दों में जितनी प्रशंसा एवं सराहना की जाए वो कम है। एक गुरू की भूमिका से लेकर गुरूकुल की पद्धति पर आधारित सभी कार्य को उन्होंने बहुत ही अद्भुत एवं सुनियोजित तरीक़े से डिज़ाइन किया है। उनके द्वारा आयोजित इस संस्कारशाला में शामिल होना एक अलग ही अनुभूति प्रतीत हुई। वास्तव में यही प्रतीत हो रहा था कि भारत की मूल शिक्षा पद्धति गुरूकुल में दोबारा शामिल होने का अवसर प्राप्त हुआ। जो वर्षों पहले एक साजिश के अन्तर्गत इस पर प्रहार कर बंद करवा दिया गया था, वो अब पुनः खुल गया हो।
ऐसा अनुभव हुआ कि ये वो स्थान है जहां एक समय ज्ञान की गंगा बहती प्रतीत होती है, तो दूसरी ओर सनातन संस्कृति का बोध करने का अवसर प्राप्त हो रहा था। जहां एक ओर गुरू से शिक्षा पाने का मौका मिला, तो दूसरी ओर धर्म का आधार समझने का अवसर मिला। जहां एक ओर महासागर सा अपना सनातन धर्म को जानने एवं उसका बोध करने का अवसर मिला तो वही दूसरी ओर अपने सनातन परम्परा, शुद्ध आचरण, समय का बोध, आचरण, व्यक्तित्व व्यवहार, अनुशासन, उत्तम चरित्र, पुरुषार्थ चतुष्टय को जानने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जो अपने आप में अलग ही अनुभूति रही। और यही वो उचित स्थान है जहां जाकर अपने धर्म को जानने एवं उससे जुड़े रहने का जिज्ञासा मन में और अधिक उठने लगी।
यदि ऐसी व्यवस्था भारत के कोने-कोने में यदि पहुँच जाए तो निश्चित रूप में हमारे देश की सनातन परम्परा को कोई भी नहीं चोट पहुँचा सकता है और ना ही कोई धूमिल कर सकता है।