भारतीय संस्कृति कहकर जिसे पूरी दुनिया में प्रचारित-प्रसारित किया जाता है, वह हिंदू-संस्कृति या सनातन संस्कृति ही है। भारत वर्ष जिन जीवन-मूल्यों, मान्यताओं, विश्वासों के कारण विश्वगुरु समझा-माना जाता है, वे सनातन जीवन-मूल्य ही हैं। हिंदुत्व ही भरतीयता का आधार है, भारत की पहचान है, भारत की अस्मिता है। हिंदुत्व यानी एक ऐसी जीवन-पद्धति जो सृष्टि के अणु-रेणु में एक ही परम सत्य के दर्शन करती है, जो सत्य के विविध रूपों को स्वीकार करती है, जो धर्म को कर्तव्य, दायित्व-बोध या मूल प्रकृति के रूप में अंगीकार करती है। वस्तुतः हिंदू-धर्म ही धर्म की वास्तविक संकल्पना को साकार करता है। शेष सभी पंथ या संप्रदाय की परिधि में आबद्ध है। एक ग्रंथ, एक पंथ, एक प्रतीक, एक पैगंबर, एक पद्धत्ति की सीमओं के परे जो सत्य है, उसके प्रति उनमें निषेध एवं अस्वीकार-भाव है। जबकि हिंदुत्व समूह-चेतना से आगे व्यक्ति-स्वातंत्र्य तक को स्वीकार करता है। भारत की मुख्यधारा हिंदुत्व की धारा है। भारत की संस्कृति हिंदुत्व की संस्कृति है। मज़हब बदलने से संस्कृति नहीं बदलती। इसलिए बृहत्तर अर्थों में भारत वर्ष के साथ माता-पुत्र का भाव रखने वाले सभी पंथ-संप्रदाय के अनुयायी हिंदू ही हैं। भले ही स्मृतिदंश एवं मतिभ्रम के कारण उन्हें इसकी सम्यक प्रतीति न हो।
भारत का इतिहास अत्यंत गौरवशाली रहा। यहाँ का शिक्षा, संस्कार, जीवन-व्यवहार धर्म और सत्य से अनुप्राणित रहा। नैतिक शुचिता और विचार-स्वातंत्र्य को हमने सदैव सर्वोत्तम माना। हमारे राजा-शासक-सम्राट अधिकार से अधिक कर्त्तव्य को महत्त्व देते रहे। राजा से लेकर प्रजा तक ”धर्मो रक्षति रक्षितः” में आस्था और विश्वास रखते रहे। हमने कभी भी दुर्बलों को नहीं सताया। किसी पर कुदृष्टि नहीं डाली। स्त्री-बृद्ध-बाल हमारी संवेदना के सर्वोत्तम केंद्रबिंदु रहे। हमारा पूरा चिंतन जीव मात्र के कल्याण को समर्पित रहा। पर धर्म की रक्षा और दुष्टों के संहार के लिए हम सदैव तत्पर रहे। हमने शास्त्र और शस्त्र दोनों को साधा। विनम्रता और दीनता में हमारे लिए सदैव अंतर रहा। ”अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च: ” के पूर्ण सत्य को हमने अपने जीवन में उतारा।
हमारा इतिहास गौरव और स्वाभिमान का इतिहास रहा है। वह पराजय का इतिहास नहीं है। अपितु साहस और संघर्षों का इतिहास रहा है। हम अपनी मातृभूमि, संस्कृति, धर्म की रक्षा के लिए प्राणार्पण से लड़े, खूब लड़े। हमारी संस्कृति त्याग और बलिदान की संस्कृति रही, शौर्य और पराक्रम की संस्कृति रही। मसीही एवं इस्लामिक सभ्यता के आगे केवल हिंदू-संस्कृति ही टिक पाई। इस्लाम ने दुनिया की सभी सभ्यताओं को तलवार के बल पर रौंदा-कुचला, पर वह चाहकर भी हिंदू-संस्कृति को मिटा नहीं पाया। बल्कि लंबी गुलामी के बाद भी हम अपने सांस्कृतिक गौरव को अक्षुण्ण रखने में सफल रहे। हमारी जितनी क्षति और सांस्कृतिक पराभव 1947 के बाद हुआ, उतना उससे पूर्व नहीं। हमें उन संघर्षों से, अपने पुरखों के साहस से, शौर्य एवं पराक्रम से सीखना होगा। हमें हिंदू इको सिस्टम के माध्यम से उस गौरव-बोध एवं स्वाभिमान को जागृत करना होगा। अपनी संततियों को आत्म-विस्मृति के गर्त्त से बाहर निकालना होगा। रीढ़विहीन, स्वाभिमान शून्य पीढ़ी का न तो कोई वर्तमान होता है, न भविष्य। इसलिए हमें अपने प्रयासों से एक स्वावलंबी, स्वाभिमानी, आत्मनिर्भर, गौरवबोध से युक्त समाज और पीढ़ियों का निर्माण करना होगा।
हमें खंड-खंड में बाँटकर हमें दुर्बल बनाया गया। अपने शास्त्र एवं शस्त्र से दूर होने के कारण हम दुर्बल हुए। खंडित, जातीय अस्मिताओं को उभारकर हमें विभाजित किया गया। हमारी एकता, अखंडता, सामूहिकता को कमज़ोर किया गया। अंग्रेजों, उनके मानस-पुत्रों और वामपंथियों ने शिक्षा के माध्यम से हमारी सांस्कृतिक चेतना को कुंद किया। हमारे भीतर अपने धर्म और संस्कृति के लिए हीनता की ग्रंथियाँ विकसित कीं। हमें धर्म व संस्कृति से विमुख किया। हिंदू इको सिस्टम धार्मिक व सांस्कृतिक चेतना को जागृत कर हिंदू-अस्मिता को उभारने का प्रयास करेगी। हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व है। अतः जो हिंदू-अस्मिता से जुड़ा है वह बृहत्तर अस्मिता से जुड़ा है। जातिवाद, क्षेत्रवाद एवं छुआछूत राष्ट्रीय एकता-अखंडता के साथ-साथ हिंदू-एकता के मार्ग में भी सबसे बड़ा अवरोधक है। हिंदू इको सिस्टम ‘हिन्दव:सोदरा: सर्वे, न हिन्दू: पतितो भवेत्। मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्र: समानता।” के ध्येय-मंत्र को लेकर चलने वाला संगठन होगा।
शक्ति के बिना कोई भी तंत्र स्थापित एवं सफल नहीं हो सकता। शक्ति की सिद्धि से ही संकल्प की सिद्धि होती है। इसलिए हिंदू इको सिस्टम उन राजनीतिक गतिविधियों को प्रश्रय एवं प्रोत्साहन देगा जो हिंदू-हितों को साधे और आगे बढ़ाए। हम इतने संगठित और मज़बूत हों कि कोई भी राजनीतिक व्यवस्था हिंदुओं की अनदेखी एवं उपेक्षा का दुस्साहस न कर सके। यह तब तक संभव नहीं होगा जब तक हम संख्या-बल की दृष्टि से मज़बूत एवं संगठित न हों। अर्थ एवं विज्ञान, प्रगति एवं विकास आधुनिक युग में एक बड़ी शक्तियाँ हैं। इसलिए हिंदू इको सिस्टम अपने सदस्यों और समर्थकों की आर्थिक प्रगति एवं स्वावलंबन हेतु भी सक्रिय और सचेष्ट रहेगा। हम देखते हैं कि जैन-समाज संख्या-बल में भले कम हो, पर अपनी आर्थिक शक्ति के बल पर वह समाज-जीवन के विविध क्षेत्रों में प्रभावी हस्तक्षेप रखता है। यहूदी-समाज अपनी शक्ति के बल पर अरब-देशों पर प्रभावी अंकुश बनाए रखता है। हमें भी उनसे सीखना है और शक्तिशाली एवं समृद्ध बनने के लिए चेतना के स्तर से लेकर धरातल तक प्रयास तीव्र करने हैं।
हमारे संस्कार हमारी धरोहर रहे हैं और उसके माध्यम से हम अपनी परंपरा, संस्कृति और धर्म से जुड़े रहे हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक के ये संस्कार संपूर्ण हिंदू-समाज को एकता के सूत्र में पिरोते हैं। हमारी पीढ़ियाँ उन संस्कारों से विमुख होती जा रही है। हमारे अधिकांश संस्कार देश-काल की कसौटी पर खरे उतरते हैं। उन संस्कारों के पीछे सुदीर्घ अनुभव एवं वैज्ञानिकता रही है। हिंदू इको सिस्टम उन संस्कारों के प्रति जनजागृत्ति के अभियान एवं कार्यक्रम चलाएगा तो निश्चय ही समाज से जुड़ने-जोड़ने की प्रक्रिया सुगम होगी। उदाहरणतः उपनयन एक संस्कार है, नामकरण एक संस्कार है, पुंसवन एक संस्कार है, विवाह एक संस्कार है, अन्नप्राशन एक संस्कार है। इन्हें पुनर्प्रतिष्ठित एवं प्रचलित करने की महती आवश्यकता है। और इन संस्कारों के प्रति जागृत्ति लाने के प्रयासों में हमें समाज का सहयोग पाना है, उनमें जनजागरण लाना है।
समान विचारधारा वाले लोग एक संगठन के रूप में जब ध्येय समर्पित होकर कार्य करते हैं तो परिणाम सुखद एवं सार्थक होता है। परिवर्तन शीघ्र आता है। प्रभाव दिखाई देता है। व्यक्तिशः किए गए कार्यों का व्यापक प्रभाव देखने को नहीं मिलता। ये सभी प्रयास निजी एवं व्यक्तिगत स्तर पर भी किए जा सकते हैं, पर संगठन के अभाव में उसका सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक प्रभाव नगण्य रहेगा। इसलिए हिंदू इको सिस्टम के रूप में एक संगठन खड़े किए जाने की आवश्यकता है। वह हिंदू-हितों को साधने के लिए हर स्तर पर काम करेगा। उसके कार्यक्रमों का स्वरूप रचनात्मक, विचारात्मक और आंदोलनात्मक तीनों होगा। हम तीनों ही प्रकार के कार्यों के द्वारा समाज में अपनी सांगठनिक उपस्थिति चिह्नित कराएँगे। रचनात्मक कार्यों में शिक्षा, सेवा, चिकित्सा, संस्कार, स्वावलंबन, प्रकृति, पर्यावरण आदि से जुड़े कार्य एवं सरोकार आएँगें। वैचारिक कार्यों में हिंदू तत्व चिंतन को आगे बढ़ाना आएगा। हिंदू विमर्श को गति प्रदान करना, वेद-उपनिषद-गीता-रामायण जैसे शास्त्रों में निहित संदेशों से युवा एवं किशोर पीढ़ी को अवगत कराना, हिंदू दर्शन, चिंतन एवं सरोकारों पर हो रहे वैचारिक हमलों का तार्किक-तथ्यात्मक खंडन भी हमारे वैचारिक कार्यक्रमों एवं योजनाओं का हिस्सा होगा। और आंदोलनात्मक कार्यों में हम हिंदू-हितों पर हो रहे चौतरफा हमलों का खुलकर प्रतिवाद और प्रतिरोध करेंगें। प्रायः देखने में आता है कि शक्ति के अभाव में हमारे देवी-देवता, आस्था-श्रद्धा, प्रतीकों-प्रतिमानों का अपमान किया जाता है, हिंदू जन-मन को आहत करने में कोई संकोच नहीं दिखाया जाता। हमारी विनम्रता, हमारी उदारता को दुर्बलता का पर्याय मान लिया गया है। हिंदू इको सिस्टम प्रतिरोधी स्वरों को भी सशक्त स्वर में उठाएगा और धर्मद्रोहियों के लिए एक चुनौती और चेतावनी के रूप में सदैव उपस्थित एवं प्रस्तुत रहेगा। भयार्त्त और भीरू जनों की कोई सुनवाई नहीं होती। हिंदू अस्मिता से छेड़छाड़ हमें स्वीकार नहीं, हिंदू-आस्था से खिलवाड़ हमें सहन नहीं होगा। हम इसके लिए समाज के भीतर एक प्रतिरोधी शक्ति-तंत्र का भी निर्माण करेंगें।
हमारा तात्कालिक एवं दूरगामी हित परस्पर पूरक होगा। हमारा तात्कालिक लक्ष्य हिंदू समाज के बहुविध हितों को साधना रहेगा और दूरगामी हित हिंदू अस्मिता से संपूर्ण समाज को जोड़ना रहेगा। यदि संपूर्ण समाज हिंदू अस्मिता से जुड़ जाय और हिंदुत्व को ही राष्ट्रीयत्व माने तो हमें किसी विशेष प्रयत्न की आवश्यकता ही नहीं। इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है। राजनीति यदि शक्ति-शरीर है तो धर्म भारत के प्राण, भारत की आत्मा। हमें आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक शक्ति का संधान कर भारत की आत्मा को जागृत करना है। उसे उसकी आत्मा से परिचित कराना है। उसे उसके मूल स्वरूप एवं बोध से साक्षात्कार कराना है।